1.कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन।
कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन।
अर्थ: कहते सुनते सब दिन निकल गए, पर यह मन उलझ कर न सुलझ पाया। कबीर कहते हैं कि अब भी यह मन होश में नहीं आता। आज भी इसकी अवस्था पहले दिन के समान ही है।
सारांश : कबीर दास जी अपने इस दोहे में कहना चाहते है कि हमारा मन हर छण बेचैन रहता है और किसी न किसी अनचाहे भय से सदैव भयभीत रहता है हमें अपने मन मे आने वाले अनेक प्रकार के विचारो पर रोक लगा कर इसे शांत करना चाहिये।
2.कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई।बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई।
अर्थ: कबीर कहते हैं कि समुद्र की लहर में मोती आकर बिखर गए। बगुला उनका भेद नहीं जानता, परन्तु हंस उन्हें चुन-चुन कर खा रहा है। इसका अर्थ यह है कि किसी भी वस्तु का महत्व जानकार ही जानता है।
सारांश : कबीर दास जी अपने इस दोहे के माध्यम से यह कहना चाहते है कि यह संसार उस समुन्द्र की भांति हे जिसमे ज्ञान और गुण रूपी मोतियों की संख्या अपार है जिसे इक हंस अर्थात एक जानकार व्यक्ति पहचान कर उन्हे अपना लेता है और एक व्यक्ति जो बगुले के समान हे वो उन ज्ञान रूपी मोतियों को न पहचान कर खो देता हे।
3.जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई।जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई।
अर्थ: कबीर कहते हैं कि जब गुण को परखने वाला गाहक मिल जाता है तो गुण की कीमत होती है। पर जब ऐसा गाहक नहीं मिलता, तब गुण कौड़ी के भाव चला जाता है।
सारांश : एक इंसान को उसके गुणों से पहचाना जाता है कबीर दास जी अपने इस दोहे में कहना चाहते है कि की जब लोग गुणों को पहचानते हे तब उस व्यक्ति का सम्मान होता है परन्तु जब लोग किसी व्यक्ति के गुणों पर नहीं बल्की उसके धन एवं यश या उसके रहन सहन और पहनावे पर उसका आंकलन करते हैं तब गुण अपना महत्व खोकर कौड़ी के मूल्य के समान हो जाते हैं।
4.कबीर कहा गरबियो, काल गहे कर केस।ना जाने कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेस।
अर्थ: कबीर कहते हैं कि हे मानव ! तू क्या गर्व करता है? काल अपने हाथों में तेरे केश पकड़े हुए है। मालूम नहीं, वह घर या परदेश में, कहाँ पर तुझे मार डाले।
सारांश : कबीर दास जी अपने इस दोहे में कहना चाहते है कि हमें की हमें किसी भी स्थिति में स्वयं पर अहंकार नहीं करना चाहिये हमारा जीवन अत्यधिक अल्प समय के लिये मिला हे। काल हमें किसी भी छण अपने आग़ोश में ले सकता है चाहे हम ब्रह्माण्ड के किसी भी कोने में हों इसीलिये हमें अपने अहंकार को त्याग कर प्रेम एवं सदभाव के साथ जीवन जीना चाहिये।
5.पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात।एक दिना छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात।
अर्थ: कबीर का कथन है कि जैसे पानी के बुलबुले, इसी प्रकार मनुष्य का शरीर क्षणभंगुर है।जैसे प्रभात होते ही तारे छिप जाते हैं, वैसे ही ये देह भी एक दिन नष्ट हो जाएगी।
सारांश : इस दोहे से कबीर दास जी का यह तात्पर्य की इस ब्रह्माण्ड मैं हर एक जिव और वस्तु नश्वर हे अर्थात सभी वस्तु चाहे वह सजीव हो या निर्जीव सभी एक दिन नस्ट हो जायेंगे इसलिये हमें अपनी काया अर्थात सुंदरता होने पर न तो अभीमान करना चाहिये और न ही काया ख़राब होने पर उसका शोक करना चाहिये।
6.हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस जलै ज्यूं घास।सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास।
अर्थ: यह नश्वर मानव देह अंत समय में लकड़ी की तरह जलती है और केश घास की तरह जल उठते हैं। सम्पूर्ण शरीर को इस तरह जलता देख, इस अंत पर कबीर का मन उदासी से भर जाता है। —
सारांश : कबीर दास जी अपने इस दोहे में अपने दुःख को व्यक्त करते हुए मृत्यु के पश्चात मानव शरीर के नष्ट होने की स्थिति को दर्शाते हैं। जिस प्रकार एक मनुष्य के जीवन का अंत हो जाता हे यह जानते हुए भी वह सभी अपने जीवन को छोटी छोटी सी वस्तुओं में उलझा कर रख लेते है , यह देख कबीर दास जी को अत्यंत पीड़ा की अनुभूति होती हैं।
7.जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या सो कुमलाहीं।
जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं।
अर्थ: इस संसार का नियम यही है कि जो उदय हुआ है,वह अस्त होगा। जो विकसित हुआ है वह मुरझा जाएगा। जो चिना गया है वह गिर पड़ेगा और जो आया है वह जाएगा।
सारांश : कबीर दास जी अपने इस दोहे में कहना चाहते है कि इस संसार में सभी प्रकार की वस्तुओ का एक निश्चित काल के पश्चात अंत हो जाता है यदि कोई सफल हे तो वह सदैव सफलता के उस उच्च शिखर पर न रह पायेगा और यदि कोई असफल है तो यह भी जरुरी नहीं की वह सदैव असफल ही रहेगा। परिवर्तन संसार का नियम है इसीलिये हमें सदैव समय के साथ साथ सवयं में परिवर्तन लाते रहना चाहिये।
8.झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद।खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद।
अर्थ: कबीर कहते हैं कि अरे जीव ! तू झूठे सुख को सुख कहता है और मन में प्रसन्न होता है? देख यह सारा संसार मृत्यु के लिए उस भोजन के समान है, जो कुछ तो उसके मुंह में है और कुछ गोद में खाने के लिए रखा है।
सारांश : कबीर दास जी अपने इस दोहे में कहना चाहते है कि आज लोग सच्चे सुख को पहचानने में असमर्थ है अल्पकालिक वस्तुओ में अपना सुख ढूंढते है वो एक लालची व्यक्ति की भांति सभी संसाधनों को स्वयं के लिये ही रखना चाहते है। कबीर दास जी अपनी इच्छा व्यक्त करते हुए यह कहते है की हम सभी को संसाधनों को मिल बाँट कर प्रयोग करना चाहिये और इक दूसरे का ख्याल रखना चाहिये।
9.ऐसा कोई ना मिले, हमको दे उपदेस।भौ सागर में डूबता, कर गहि काढै केस।
अर्थ: कबीर संसारी जनों के लिए दुखित होते हुए कहते हैं कि इन्हें कोई ऐसा पथ प्रदर्शक न मिला जो उपदेश देता और संसार सागर में डूबते हुए इन प्राणियों को अपने हाथों से केश पकड़ कर निकाल लेता।
सारांश : कबीर दास जी अपने इस दोहे में कहना चाहते है कि इस संसार में सभी व्यक्ति किसी न किसी प्रकार के दुःख अथवा पीड़ा से ग्रसित है। कबीर दास जी ऐसे किसी व्यक्ति की इच्छा रखते है जो हम सभी इस संसार मे फैले दुःख के सागर से पार पाने में सहायता कर सके।
10.संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंतचन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत।
अर्थ: सज्जन को चाहे करोड़ों दुष्ट पुरुष मिलें फिर भी वह अपने भले स्वभाव को नहीं छोड़ता। चन्दन के पेड़ से सांप लिपटे रहते हैं, पर वह अपनी शीतलता नहीं छोड़ता।
सारांश : कबीर दास जी अपने इस दोहे में कहना चाहते है कि जिस प्रकार चन्दन के पेड़ से सांप लिपटे रहते हैं, पर वह अपनी शीतलता नहीं छोड़ता और जिस प्रकार सज्जन को चाहे करोड़ों दुष्ट पुरुष मिलें फिर भी वह अपने भले स्वभाव को नहीं छोड़ता उसी प्रकार हमे हमेशा सत्य के मार्ग पर चलना चाहिये और अपने सद्गुणों का त्याग कभी नहीं करना चाहिये।
11. कबीर तन पंछी भया, जहां मन तहां उडी जाइ।
जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाइ।
अर्थ: कबीर कहते हैं कि संसारी व्यक्ति का शरीर पक्षी बन गया है और जहां उसका मन होता है, शरीर उड़कर वहीं पहुँच जाता है। सच है कि जो जैसा साथ करता है, वह वैसा ही फल पाता है।
सारांश : कबीर दास जी अपने इस दोहे में कहना चाहते है कि एक व्यक्ति के चरित्र का दर्पण उसके मित्रो को कह सकते हैं जिस व्यक्ति की संगती जैसी होती है उसके स्वाभाव एवं चरित्र पर वैसा ही प्रभाव परता है इसीलिये हमे अपनी संगती सदैव समझ कर चुनना चाहिये।