1.आदमी की औकात
*फिर घमंड कैसा*
घी का एक लोटा,
लकड़ियों का ढेर,
कुछ मिनटों में राख.....
बस इतनी-सी है
*आदमी की औकात
एक बूढ़ा बाप शाम को मर गया,
अपनी सारी ज़िन्दगी,
परिवार के नाम कर गया,
कहीं रोने की सुगबुगाहट,
तो कहीं ये फुसफुसाहट....
अरे जल्दी ले चलो
कौन रखेगा सारी रात.....
बस इतनी-सी है
*आदमी की औकात!!!!*
मरने के बाद नीचे देखा तो
नज़ारे नज़र आ रहे थे,
मेरी मौत पे.....
कुछ लोग ज़बरदस्त,
तो कुछ ज़बरदस्ती
रोए जा रहे थे।
नहीं रहा........चला गया.....
दो चार दिन करेंगे बात.....
बस इतनी-सी है
*आदमी की औकात!!!!*
बेटा अच्छी सी तस्वीर बनवायेगा,
उसके सामने अगरबत्ती जलायेगा,
खुश्बुदार फूलों की माला होगी....
अखबार में अश्रुपूरित श्रद्धांजली होगी.........
बाद में कोई उस तस्वीर के
जाले भी नही करेगा साफ़....
बस इतनी-सी है
*आदमी की औकात ! ! ! !*
जिन्दगी भर,
मेरा- मेरा- किया....
अपने लिए कम ,
अपनों के लिए ज्यादा जिया....
फिर भी कोई न देगा साथ.....
जाना है खाली हाथ.... क्या तिनका
ले जाने के लायक भी,
होंगे हमारे हाथ ??? बस
*ये है हमारी औकात....!!!!*
*जाने कौन सी शोहरत पर,*
*आदमी को नाज है!*
*जो आखरी सफर के लिए भी,*
*औरों का मोहताज है!!!!*
*फिर घमंड कैसा ?*
*बस इतनी सी हैं*
😭😭 *हमारी औकात* 🙏🙏
2🌹🌹.धैर्य🌹🌹
*धैर्य एक कड़वा पौधा है ,*
*लेकिन इसके फल हमेशा*
*मीठे ही आते है।*
*यक़ीन करना सीखो..*
*शक तो सारी दुनिया*
*करती है…!*
. *जिन्दगी जब देती है,*
*तो एहसान नहीं करती*
*और जब लेती है तो,*
*लिहाज नहीं करती*
3.कोशिश कर, हल निकलेगा
कोशिश कर, हल निकलेगा,
आज नहीं तो, कल निकलेगा.
अर्जुन के तीर सा सध,
मरूस्थल से भी जल निकलेगा.
मेहनत कर, पौधों को पानी दे,
बंजर जमीन से भी फल निकलेगा.
ताकत जुटा, हिम्मत को आग दे,
फ़ौलाद का भी बल निकलेगा
जिंदा रख, दिल में उम्मीदों को,
गरल के समंदर से भी गंगाजल निकलेगा.
कोशिशें जारी रख कुछ कर गुजरने की
, जो है आज थमा-थमा सा, चल निकलेगा
कवि – आनंद परम | Anand Param
4.कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती
लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चढ़ती है
चढ़ती दीवारों पर सौ बार फ़िसलती है
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है
मेहनत उसकी बेकार नहीं हर बार होती
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती
डुबकियाँ सिंधु में गोताखोर लगाता है
जा-जा कर खाली हाथ लौट कर आता है
मिलते न सहज ही मोती गहरे पानी में
बढ़ता दूना विश्वास इसी हैरानी में
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती
असफ़लता एक चुनौती है, स्वीकार करो
क्या कमी रह गई देखो और सुधार करो
जब तक न सफल हो, नींद-चैन को त्यागो तुम
संघर्षों का मैदान छोड़ मत भागो तुम
कुछ किये बिना ही जय-जयकार नहीं होती
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती
कवि – सोहन लाल द्विवेदी | Sohan Lal Dwivedi
5.चलना हमारा काम है
गति प्रबल पैरों में भरी, फिर क्यों रहूं दर दर खड़ा
जब आज मेरे सामने, है रास्ता इतना पड़ा
जब तक मंजिल न पा सकूं, तब तक मुझे न विराम है
चलना हमारा काम है,कुछ कह लिया,कुछ सुन लिया
कुछ बोझ अपना बंट गया, अच्छा हुआ, तुम मिल गई
कुछ रास्ता ही कट गया,क्या राह में परिचय कहूं
राही हमारा नाम है, चलना हमारा काम है.
जीवन अपूर्ण लिए हुए, पाता कभी खोता कभी
आशा निराशा से घिरा ,हँसता कभी रोता कभी
गति-मति न हो अवरूद्ध, इसका ध्यान आठो याम है
चलना हमारा काम है., इस विषद विश्व-प्रहार में
किसको नहीं बहना पड़ा, सुख-दुःख हमारी ही तरह
किसको नहीं सहना पड़ा,
फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूं
मुझ पर विधाता वाम है,
चलना हमारा काम है.
मैं पूर्णता की खोज में, दर-दर भटकता ही रहा
प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ,रोड़ा अटकता ही रहा
निराशा क्यों मुझे?,जीवन इसी का नाम है
चलना हमारा काम है.,साथ में चलते रहे
कुछ बीच ही से फिर गए, गति न जीवन की रुकी
जो गिर गए सो गिर गए, रहे हर दम
उसी की सफ़लता अभिराम है,
चलना हमारा काम है.
फ़कत यह जानता,
जो मिट गया वह जी गया
मूंदकर पलकें सहज ,दो घूंट हँसकर पी गया
सुधा-मिक्ष्रित गरल, वह साकिया का जाम है
चलना हमारा काम है .
कवि –शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ | Shiv Mangal Singh ‘Suman’
6.नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो,
जग में रहकर कुछ नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो,
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को,
नर हो, न निराश करो मन को ।
संभलो कि सुयोग न जाय चला,
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न गिरा सपना,
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलंबन को,
नर हो, न निराश करो मन को।
जब प्राप्त तुम्हें सब तत्व यहाँ,
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो,
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को,
नर हो, न निराश करो मन को ।
निज गौरव का नित ज्ञान रहे,
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे,
सब जाय अभी पर मान रहे
कुछ हो न तजो निज साधन को,
नर हो, न निराश करो मन को ।
प्रभु ने तुमको कर दान किए,
सब वांछित वस्तु विधान किए
तुम प्राप्त करो उनको न अहो,
फिर है यह किसका दोष कहो
समझो न अलभ्य किसी धन को,
नर हो, न निराश करो मन को ।
किस गौरव के तुम योग्य नहीं,
कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं ।
जान हो तुम भी जगदीश्वर के,
सब है जिसके अपने घर के
फिर दुर्लभ क्या उसके जन को,
नर हो, न निराश करो मन को ।
करके विधि वाद न खेद करो,
निज लक्ष्य निरंतर भेद करो
बनता बस उद्यम ही विधि है,
मिलती जिससे सुख की निधि है ।
समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को,
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो,
जग में रहकर कुछ नाम करो ।
कवि – स्व. मैथलीशरण गुप्त | Late Maithili Sharan Gupt
7.हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए
कवि – दुष्यंत कुमार | Dushyant Kumar
8.रुके न तू, थके न तू
धरा हिला, गगन गुंजा, नदी बहा, पवन चला
विजय तेरी, विजय तेरी,ज्योति सी जल, जला
भुजा-भुजा, फड़क-फड़क, रक्त में धड़क-धड़क
धनुष उठा, प्रहार कर, तू सबसे पहला वार कर
अग्नि सी धधक-धधक,हिरन सी सजग-सजग
सिंह सी दहाड़ कर,शंख सी पुकार कर
रुके न तू, थके न तू,झुके न तू, थमे न तू
सदा चले, थके न तू, रुके न तू, झुके न तू
कवि – स्व. हरिवंश राय बच्चन | Late Harivansh Rai Bachchan
9.जो चल सको तो चलो
सफ़र में धूप तो होगी, जो चल सको तो चलो,
सभी हैं भीड़ में, तुम भी निकल सको तो चलो
इधर-उधर कई मंजिल है, चल सको तो चलो,
बने बनाये हैं साँचे, जो ढल सको तो चलो
किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं,
तुम अपने आप को खुद बदल सको तो चलो
यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता,
मुझे गिराके अगर तुम संभल सको तो चलो
यही है जिंदगी कुछ ख्वाब चंद उम्मीदें,
इन्हें खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो
हर एक सफ़र को है मह्फूज़ रास्तों की तलाश
हिफाज़तों की रिवायत बदल सको, तो चलो
कहीं नहीं कोई सूरज, धुआँ-धुआँ है फिज़ा
ख़ुद अपने आप से बाहर निकल सको, तो चलो.
कवि – निदा फ़ाज़ली | Nida fazli
10.कदम मिलाकर चलना होगा
बाधाएं आती हैं आएं, घिरे प्रलय की घोर घटाएं
पावों के नीचे अंगारे, सिर पर बरसे यदि ज्वालाएं
निज हाथों से हंसते-हंसते,
आग लगाकर जलना होगा
कदम मिलाकर चलना होगा,
हास्य-रूदन में, तूफानों में
अगर असंख्य बलिदानों में, उद्यानों में, वीरानों में
अपमानों में, सम्मानों में, उन्नत मस्तक, उभरा सीना
पीड़ाओं में पलना होगा, कदम मिलाकर चलना होगा
उजियारे में, अंधकार में,कल कछार में, बीच धार में
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को दलना होगा
कदम मिलाकर चलना होगा,
सम्मुख फैला अमर ध्येय पथ
प्रगति चिरंतन कैसा इति अथ,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ
असफ़ल, सफ़ल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते
पावस बनकर ढलना होगा,
कदम मिलाकर चलना होगा
कुछ कांटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन
नीरवता से मुखरित मधुबन,
पर-हित अर्पित अपना तन-मन
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा
कदम मिलाकर चलना होगा
कवि – स्व. अटल बिहारी वाजपेयी | Late Atal Bihari Vajpayee
11.तुम तो हारे नहीं तुम्हारा मन क्यों हारा है
तुम तो हारे नहीं तुम्हारा मन क्यों हारा है?
कहते हैं ये शूल चरण में बिंधकर हम आए
किंतु चुभे अब कैसे जब सब दंशन टूट गए
कहते हैं पाषाण रक्त के धब्बे हैं हम पर
छाले पर धोएं कैसे जब पीछे छूट गए
यात्री का अनुसरण करें, इसका न सहारा है!
तुम्हारा मन क्यों हारा है?
इसने पहिन वसंती चोला कब मधुबन देखा?
लिपटा पग से मेघ न बिजली बन पाई पायल
इसने नहीं निदाघ चाँदनी का जाना अंतर
ठहरी चितवन लक्ष्यबद्ध, गति थी केवल चंचल!
पहुँच गए हो जहाँ विजय ने, तुम्हें पुकारा है!
तुम्हारा मन क्यों हारा है?
कवित्री – स्व. महादेवी वर्मा | Late Mahadevi Verma
12. वीर
सच है, विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है
सूरमा नहीं विचलित होते,क्षण एक नहीं धीरज खोते
विघ्नों को गले लगाते हैं,
कांटों में राह बनाते हैं
मुँह से कभी उफ़ न कहते हैं,
संकट का चरण न गहते हैं
जो आ पड़ता सब सहते हैं, उद्योग-निरत नित रहते हैं
शूलों का मूल नसाते हैं,बढ़ ख़ुद विपत्ति पर छाते हैं
है कौन विघ्न ऐसा जग में,
टिक सके आदमी के मग में?
ख़म ठोक ठेलता है जब नर,
पर्वत के जाते पाँव उखड़
मानव जब ज़ोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है
गुण बड़े एक से एक प्रखर,है छिपे मानवों के भीतर
मेहंदी में जैसे लाली हो, बीच उजियाली हो
बत्ती जो नहीं जलाता है, रोशनी नहीं वह पाता है
कवि – स्व. रामधारी सिंह ‘दिनकर’ | Late Ramdhari Singh Dinkar
13. बढ़े चलो, बढ़े चलो
न एक हाथ शस्त्र हो
न हाथ एक अस्त्र हो
न अन्न वीर वस्त्र हो
हटो नहीं, डरो नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो
रहे समक्ष हिम-शिखर
तुम्हारा प्रण उठे निखर
भले ही जाए जन बिखर
रुको नहीं, झुको नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो
घटा घिरी अटूट हो
अधर में कालकूट हो
वही सुधा का घूंट हो
जिये चलो, मरे चलो, बढ़े चलो, बढ़े चलो
गगन उगलता आग हो
छिड़ा मरण का राग हूँ
लहू का अपने फाग हो
अड़ो वहीं, गड़ो वहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो
चलो नई मिसाल हो
जलो नई मशाल हो
झुको नहीं, रुको नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो
अशेष रक्त तोल दो
स्वतंत्रता का मोल दो
कड़ी युगों की खोल दो
डरो नहीं, मरो नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो
कवि – सोहनलाल द्विवेदी | Sohanlal Dwivedi
14. तू ख़ुद की खोज में निकल
तू ख़ुद की खोज में निकल, तू किसलिए हताश है
तू चल तेरे वजूद की, समय को भी तलाश है
जो तुझसे लिपटी बेड़ियाँ, समझ न इनको वस्त्र तू
ये बेड़ियाँ पिघाल के,बना ले इनको शस्त्र तू
तू ख़ुद की खोज में निकल, तू किसलिए हताश है
तू चल तेरे वजूद की, समय को भी तलाश है
चरित्र जन पवित्र है, तोह क्यों है ये दशा तेरी
ये पापियों को हक़ नहीं, की लें परीक्षा तेरी
तू ख़ुद की खोज में निकल, तू किसलिए हताश है
तू चल तेरे वजूद की, समय को भी तलाश है
जला के भस्म कर उसे,जो क्रूरता का जाल है
तू आरती की लौ नहीं, तू क्रोध की मशाल है
तू ख़ुद की खोज में निकल, तू किसलिए हताश है
तू चल तेरे वजूद की, समय को भी तलाश है
चूनर उड़ा के ध्वज बना, गगन भी कपकपाएगा
अगर तेरी चूनर गिरी, तोह एक भूकंप आएगा
तू ख़ुद की खोज में निकल, तू किसलिए हताश है
तू चल तेरे वजूद की, समय को भी तलाश है
कवि – तनवीर गाज़ी | Tanveer Ghazi
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