15 Best Poems Of Goswami Tulsidas.

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“कवितावली”

{1}

अवधेस के द्वारे

अवधेस के द्वारे सकारे गई सुत गोद में भूपति लै निकसे।
अवलोकि हौं सोच बिमोचन को ठगि-सी रही, जे न ठगे धिक-से॥
‘तुलसी’ मन-रंजन रंजित-अंजन नैन सुखंजन जातक-से।
सजनी ससि में समसील उभै नवनील सरोरुह-से बिकसे॥
तन की दुति श्याम सरोरुह लोचन कंज की मंजुलताई हरैं।
अति सुंदर सोहत धूरि भरे छबि भूरि अनंग की दूरि धरैं॥
दमकैं दँतियाँ दुति दामिनि ज्यों किलकैं कल बाल बिनोद करैं।
अवधेस के बालक चारि सदा ‘तुलसी’ मन मंदिर में बिहरैं॥
सीस जटा, उर बाहु बिसाल, बिलोचन लाल, तिरीछी सी भौंहैं।
तून सरासन-बान धरें तुलसी बन मारग में सुठि सोहैं॥
सादर बारहिं बार सुभायँ, चितै तुम्ह त्यों हमरो मनु मोहैं।
पूँछति ग्राम बधु सिय सों, कहो साँवरे-से सखि रावरे को हैं॥
सुनि सुंदर बैन सुधारस-साने, सयानी हैं जानकी जानी भली।
तिरछै करि नैन, दे सैन, तिन्हैं, समुझाइ कछु मुसुकाइ चली॥
‘तुलसी’ तेहि औसर सोहैं सबै, अवलोकति लोचन लाहू अली।
अनुराग तड़ाग में भानु उदै, बिगसीं मनो मंजुल कंजकली॥
– तुलसीदास
{2}

हरि अनुग्रह

हरि! तुम बहुत अनुग्रह किन्हों।
साधन-नाम बिबुध दुरलभ तनु, मोहि कृपा करि दीन्हों॥१॥
कोटिहुँ मुख कहि जात न प्रभुके, एक एक उपकार।
तदपि नाथ कछु और माँगिहौं, दीजै परम उदार॥२॥
बिषय-बारि मन-मीन भिन्न नहिं होत कबहुँ पल एक।
ताते सहौं बिपति अति दारुन, जनमत जोनि अनेक॥३॥
कृपा डोरि बनसी पद अंकुस, परम प्रेम-मृदु चारो।
एहि बिधि बेगि हरहु मेरो दुख कौतुक राम तिहारो॥४॥
हैं स्त्रुति बिदित उपाय सकल सुर, केहि केहि दीन निहोरै।
तुलसीदास यहि जीव मोह रजु, जोइ बाँध्यो सोइ छोरै॥५॥
                                                        – तुलसीदास
{3}
“तुलसी-स्तवन”
तुलसी ने मानस लिखा था जब जाति-पाँति-सम्प्रदाय-ताप से धरम-धरा झुलसी।
झुलसी धरा के तृण-संकुल पे मानस की पावसी-फुहार से हरीतिमा-सी हुलसी।
हुलसी हिये में हरि-नाम की कथा अनन्त सन्त के समागम से फूली-फली कुल-सी।
कुल-सी लसी जो प्रीति राम के चरित्र में तो राम-रस जग को चखाय गये तुलसी।
आत्मा थी राम की पिता में सो प्रताप-पुन्ज आप रूप गर्भ में समाय गये तुलसी।
जन्मते ही राम-नाम मुख से उचारि निज नाम रामबोला रखवाय गये तुलसी।
रत्नावली-सी अर्द्धांगिनी सों सीख पाय राम सों प्रगाढ प्रीति पाय गये तुलसी।
मानस में राम के चरित्र की कथा सुनाय राम-रस जग को चखाय गये तुलसी।
                                                    – तुलसीदास
{4}

महाराज रामादर्यो धन्य सोई।

महाराज रामादर्यो धन्य सोई।
गरूअ, गुनरासि, सरबग्य, सुकृती, सूर, सील,-निधि, साधु तेहि सम न कोई।1।
उपल ,केवट, कीस,भालु, निसिचर, सबरि, गीध सम-दम -दया -दान -हीने।।
नाम लिये राम किये पवन पावन सकल, नर तरत तिनके गुनगान कीने।2।
ब्याध अपराध की सधि राखी कहा, पिंगलै कौन मति भगति भेई।
कौन धौं सेमजाजी अजामिल अधम, कौन गजराज धौं बाजपेयी।3।
पांडु-सुत, गोपिका, बिदुर, कुबरी, सबरि, सुद्ध किये, सुद्धता लेस कैसो।
प्रेम लखि कृस्न किये आने तिनहूको, सुजस संसार हरिहर को जैसो।4।
कोल, खस, भील जवनादि खल राम कहि, नीच ह्वै ऊँच पद को न पायो।
दीन-दुख- दवन श्रीवन करूना-भवन, पतित-पावन विरद बेद गायो।5।
मंदमति, कुटिल , खल -तिलक तुलसी सरिस, भेा न तिहुँ लोक तिहुँ काल कोऊ।
नाकी कानि पहिचानि पन आवनो, ग्रसित कलि-ब्याल राख्यो सरन सोऊ।6।
                                                             – तुलसीदास
{5}

अबलौं नसानी, अब न नसैहौं

अबलौं नसानी, अब न नसैहौं।
राम-कृपा भव-निसा सिरानी, जागे फिरि न डसैहौं।1।
पायेउ नाम चारू चिंतामनि, उर-कर तें न खसैहों।
स्यामरूप सुचि रूचिर कसौटी, चित कंचनहिं कसैहौं।2।
परबस जानि हँस्यो इन इंद्रिन, निज बस ह्वै न हँसैहौं।
मन-मधुकर पनक तुलसी रघुपति-पद-कमल बसैहौं।3।
                                                    – तुलसीदास
{6}

कोसलपति राम

है नीको मेरो देवता कोसलपति राम।
सुभग सरारूह लोचन, सुठि सुंदर स्याम।1।
सिय-समेत सोहत सदा छबि अमित अनंग।
भुज बिसाल सर धनु धरे, कटि चारू निषंग।2।
बलिपूजा चाहत नहीं , चाहत एक प्रीति।
सुमिरत ही मानै भलो, पावन सब रीति।3।
देहि सकल सुख, दुख दहै, आरत-जन -बंधु।
गुन गहि, अघ-औगुन हरै, अस करूनासिंधु।4।
देस-काल -पूरन सदा बद बेद पुरान।
सबको प्रभु, सबमें बसै, सबकी गति जान।5।
को करि कोटिक कामना , पूजै बहु देव।
तुलसिदास तेहि सेइये, संकर जेहि सेव।6
                                                         – तुलसीदास
{7}

दुलार

सुब्र सेज सोभित कौसिल्या रुचिर राम-सिसु गोद 
सुग्री सेज सोभित कौसिल्या रुचिर राम-सिसु गोद में |
बार-बार बिधुबदन बिलोकति लोचन चारु चकोर किये ||
कबहुँ पौधि पयपान करावती, कबहूँ राखति रेखा हिये |
बॉयेलि गावती हलवती, पुलकिती प्रेम-पियूष पिये ||
बिधि-महेस, मुनि-सुर सिहात सब, देखत अंबुद ओत रिस |
तुलसिदास ऐसो सुख रघुपति पैहु तो पायो न बई ||
                                                             – तुलसीदास
{8}

झुलत राम पलने सोहै

झूलत राम पलने सोहैं | भूरि-भाग जननिजन जोहैं ||
तन मृदु मञ्जुल मेचिताई | झलकति बाल बिभूषन झाँई ||
अधीर-पीन-पद लोहित लोने | सर-सि .ुद्र-अभि सार सार सो ||
किलकत निरखि बिलोल खेलौना | मनहुँ बिनोद लरत छबि छौना ||
रज्जित-अंजन कज्जन-बिलोचन | भ्राजत भाष्य तिलक गोरोचन ||
लस मसिबिन्दु बदन-बिधु नीको | चित्त चितचोर तुलसीको ||
                                                      – तुलसीदास
{9}

राजत सिसुरूप राम सकल गुन-निकाय-धाम

रजत सिसूरूप राम सकल गुन-लय-धाम,
कौतुकी कृपालुमा जानु-पीन-चारी |
नीलकंज़-जलदुर्ग्ज-मरकमणि-सरिस स्याम,
काम कोटि सोभा अंग अंग उपर बारी ||
हाटक-मनि-रत्न-खचित रचित इंद्र-मनिन्दिश,
इंदिरानिवास सदन बिधि रचि सँवारी |
बिरहत नृप-अजिर अनुज सहित बालकेलि-कुसल,
नील-जलज-लोचन हरि मोचन भय भारी ||
अरुण चरन अंकुस-धुज-कर्जन-कुलिस-प्रतीक रुचिर,
भ्रमज अति नूपुर बर मधुर मुखर |
किकिनी बिचित्र जाल, कम्बुकण्ठ ललित माल,
उर बिसाल केहरि-नख, कूकन करतार ||
चारु चिबुक नासिका कपोल, प्रधान तिलक, दिलुकुटी,
श्रवन अधर सुन्दर, द्विज-छबि अनूप न्यारी |
मनहुँ अरु कञ्ज-कोस मँजुल जुगपाँति पीड़ित,
कुंदकली जुगल जुगल परम सुभ्रवारी ||
चिचन चिकुरावली व्यक्ति षडङ्घ्रि-मण्डली,
बनी, बिसेषी गुज्वात जनु बालक किलकारी |
नायकक रिफांब निरखि पुलकत हरि हरषि हरषि,
लैफ्ट लै्ग जननी रसभङ्ग जिय बिचारी ||
जाकह सनकादि सम्बद्ध नारदादि सुक मुनिन्द्र,
करत बिबिध जोग काम क्रोध लोभ जारी |
दसरथ गृह सोइ उदार, भजन् संसार-भार,
लीलातार तुलसीदास-त्रासरी ||
                                                            – तुलसीदास
{10}

आँगन फिरत घुरवनि धाए -तुलसीदास

आँगन फिरत घुरवनि धा |
नील-जलद तनु-श्याम राम-सिसु जननी निरखि मुख निकट बोला ||
बन्धुक सुमन अरुण पद-पध्कज अंकस प्रमुख चिन्ह बनि आए |
नूपुर जनु मुनिबर-कलहंसि रचे नीड़ दै बाँह बसाए ||
कटिमेखल, बर हार ग्रीव-दर, रुचिर बाँह भूषन पहिराए |
उर श्रीवत्स मनोहर हरिनख हेम मध्य मनिगन बहु लाए ||
सुब्रत चिबुक, द्विज, अधर, नासिका, श्रवण, कपोल मोहि अति भाए |
भ्रू सुन्दर करुनरस-पूरन, लोचन मनहु जुगल जलजाए ||
भाल बिसाल ललित लटकन बर, बालदसके चिकुर सोहा |
मनु दोउ गुर सनि कुज आगे करि ससिहि मिलन तमके गान आया ||
उपमा एक दिन भई तब जब जननी पट पीट ओढ़ाए |
नील जलपर उडुगन निरखत तजि सुभाव मन तित छपाए ||
अंग-अंगपर मार-निकर मिलि छबि समूह लै-ल जानु छाए |
तुलसिदास रघुनाथ रूप-गुनौ कहौं जो बिधि होहिं राखै ||
                                                            – तुलसीदास
{11}

रघुबर बाल छी कहौं बरनि -तुलसीदास

रघुबर बाल छिब कहौं बरनि |
सकल सुखकी सीम, कोटि-मनोज-सोभाहरनि ||
बसी मानहु चरन-कमलनि अरुता तजि तरनि |
रुचिर नूपुर किङचिनी मन हरति रंजुनु करनि ||
मञ्जु मेचक मृदुल तनु अनुहरति भूषन भरनि |
जनु सुभग सिुुग सिसु तरु भय्यो है अदभुत फरनी ||
भुजनी भुजग, सरोज नयननी, बदन बिधु जित्यो लरनी |
रही कुहरनी सलिल, नभ, उपमा अपर दुरि डरनि ||
लसत कर-रिफाम मनि-आँगन घुरुवनि चरनि |
जनु जलज-सम्पुट सुछि भरि-भरि धरति उर धरनि ||
पुन्यफल अनुभवति सुतहि बिलोकि दसरथ-घरनि |
बसती तुलसी-हृदय प्रभु-किलकनी ललित लपकारिणी ||

नेकु बिलोकि धौं रघुबरनि |
चारु फल त्रिपुरारि तोको हो कर नृप-घरनी ||
बाल भूषण बसन, तन सुन्दर रुचिर रजभरनी |
परसपर खेलनिजिर, उठि चलनि, गिरि गिरि परनि ||
झुकनी, झाँकनी, छाँह सों किलकनी, नटनी हठि लरनी |
तोरी बोलनी, बिलोकनी, मोहनी मनहरनी ||
सखि-बचन सुनी कौसिला लखि सुढेर पासे ढरनि |
लेति भरि भरि अंक सैवंति पैगण जनु दुहु करनि ||
चरित निरखत बिबध तुलसी ओट दै जलधारिणी |
छट सुर सुरपति भयो सुरति भये चहै तरनि ||
                                                           – तुलसीदास
{12}

छँगन मँगन अँगना खेलत चारु चारो भाई

छँगन मँगन अँगना खेलत चारु चारो भाई |
सनुज भरत लाल लषन राम लोने लोने
लरिका लखि मुदित मातु समुदाई ||
बाल बसन भूषन धरे, नख-सिख छबि छाई |
नील पीत मनसिज-सरसिज मँझुल
मालिनी मानो ने देहानितें दुति पाई ||
ठुमुकु ठुमुकु पग दर्शननी, नटनी, लपकरीनी सुहाई |
भजनी, मिलनी, रुठनी, तूथनी, किल्किनी,
अवलोकनि, बोलनि बरनि न जाई ||
जननी सकल चहुँ ओर आबल मनि-अँगनाई |
दसारथ-सुइकृत बिबुध-बिरवा बिलरात
बिलोकि जनु बिधि बर बारि बनाई ||
हरि बिरंचि हर हेरि राम प्रेम-परबसिते |
सुख-समाज रघुराजके बरनत
बिसरित मन सुरनि सुमन झूठ लाई ||
सुमिरत श्रीरघुबरनिकी लीला लरिकाई |
तुलसिदास अनुराग अवध अनँद
अनुभवत तब को सोझहँ अघाई ||
                                                        – तुलसीदास
{13}

आँगन खेलत अनँदकन्द

आँगन खेलत अनँदकन्द | रघुकुल-कुमुद-सुखद चारु चंद ||
सनुज भरत लषन सँग सोहैं | सिसु-भूषन भूषित मन मोहैं |
तन दुती मोरचन्द जिमि झलकनी | मनहुँ उमगि अँग-अँग छिब छलकान ||
कटि कि बाज्किनि पग पैजनि बाजैं | प्कज पिन्न पहुँचिआँ राजन् |
कठुला कण्ठ बघणहा नीके | नयन-सरज-मयन-सरसीके ||
लटकन लसत ललाट लटयूरन | दमकतीव्यै द्वै दँतुरियाँ रुरीं |
मुनि-मन हरत मञ्जु मसि बुन्दा | ललित बदन बलिदान बाल मुकुन्दा ||
कुल्हि चित्र बिबोलि झोंगुली | निरखत मातु मुदित मन फूलीं |
यनि मनिखम्भ दिघ डगि डोलत | कल बल बचन तोरे बोलत ||
किलकत, झुकि झाँकत रेफम्बिनी | देत परम सुख पितु अरु अंबनी |
सुमिरत सुख हिय हुलसी है | गावत प्रेम पुलिक तुलसी है ||
                                                             – तुलसीदास
{14}

ललित सुतहि लालति सचु पाई

ललित सुतहि लालति सचु पाई |
कौसल्य कल कनक अजिर महँ सिखावति चलन अँगुरियाँ लाये ||
कटि किनिचिनी, पैजनी पायनी तहति रुनझुन मधुर रेङगये |
पहुँची करनि, कण्ठ कठुला बन्यो केहरि नख मनि-जरित जराये ||
पीत पुनीत बिचित्र झंगुलिया सोहति स्याम सरीर सोहाये |
दँतोंवत द्वै-द्वै मनोहर मुख छबि, अरुन अधर चित लेत चोराये ||
चिबुक कपोल नासिका सुन्दर, तिलक तिलक मसिबिन्दु बनाये |
राजत नयन मञ्जु अंजनजुत खजनु कर्जन मीन मदायये ||
लटकन चारु भ्रुकुटिया टेढ़ी, मेढ़ी सुब्र सुदेस सुभाय |
किलकिनी किलकि नाचत जानकी, डरति जननि पानि अपवित्रे ||
गिरि गुरुविनी तकि उठि अनुजनि तोतरि बोलत पूप देखाई |
बाल-अलि अवलोकि मातु सब मुदित मगन अनँद न अमये ||
देखत नभ ग-ओट चरित मुनि जोग समाधि बिरति बिसराये |
तुलसीदास जे रसिक न इति रस ते नर जद जीवत जग हो ||
                                                             – तुलसीदास
{15}

आजु महामुगल कोसलपुर सुनी नृपके सुत चारि भए

आजु महामुगल कोसलपुर सुनी नृपके सुत चारि भए |
सदन-सदन सोहिलो सोवनवन, नभ अरु नगर-निसान हए ||
सजि-समझि जान अमर-किन्नर-मुनि जानि समय-सम गान ठए |
नाचहिं नभ अपसरा मुदित मन, पुनि-पुनि बरषहिं सुमन-चए ||
अति सुख बेगि बोलि गुरु भूसुर भूपति भीतर भवन गई |
जातकर्म करि कनक, बसन, मनि भूषित सुरभि-समूह दए ||
दल-फल-फूल, दूब-दधि-रोचन, जुबतिन्ह भरि-भरि थार |
गावत गूं भीर भै बीथिन्ह, बन्दिन्ह बाँकुरे बिरद बए ||
कनक-कलस, चामर-पताक-धुज, जहँ तहँ बन्दनवार नई |
भरहिं अबीर, अरगजा छिरकहिं, सकल लोक एक राग राग ||
उमगि चल्यौ आनन्द लोक तिहुँ, देत सबनि मनधर रीत |
तुलसिदास पुनि भरि देखि, रामकृपा चितवनि चित्त
                                                            – तुलसीदास


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